Tuesday 27 January 2015

प्रजासत्ताक दिन संचलन 2015


प्रजासत्ताक दिनाच्या संचलनात देशाच्या लष्करी सामर्थ्याचे आणि सांस्कृतिक वारश्याचे दर्शन


66 व्या प्रजासत्ताक दिनाच्या संचलनादरम्यान देशाचं लष्करी सामर्थ आणि समृध्द सांस्कृतिक विविधतेचे यथार्थ दर्शन घडवणाऱ्या प्रतिमांनी हा सोहळा रंगतदार ठरला. अमेरिकेचे राष्ट्राध्यक्ष बराक ओबामा या कार्यक्रमाचे प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित होते.
देशाच्या विविधतेतून एकतेचा प्रत्यय देणाऱ्या सुमारे दोन तासांच्या या राजपथावरच्या संचलनाचे हजारो प्रेक्षकांनी हर्षोल्हासानं स्वागत केले. 21 तोफांच्या सलामीनंतर राष्ट्रपतींनी राष्ट्रध्वज फडकवला. त्यानंतर राष्ट्रगीत झाले आणि संचलनाला सुरुवात झाली.  त्यापूर्वी शांततेच्या काळातला सर्वोच्च शौर्य पुरस्कार, अशोकचक्र नायक नीरजकुमार सिंग आणि मेजर मुकुंद वरदराजन यांना मरणोत्तर बहाल करण्यात आला. काश्मीरमधल्या शोपीयन इथे दहशतवाद्यांच्या गटाशी झुंज देताना मेजर वरदराजन यांना तर कुपवाडा येथे दहशतवाद्यांशी लढताना नायक नीरजकुमार यांना वीरमरण आले.
सागरी टेहळणी करणारी  आणि पाणबुडीवेधी लांब पल्ल्याची पी8आय विमाने तसेच लांब पल्ल्याचे प्रगत मिग 29के ही लढाऊ विमाने यावर्षीच्या संचलनाचे  प्रमुख आकर्षण होते.
जनरल ऑफिसर कमांडिग (दिल्ली) लेफ्टनंट जनरल सुब्रतो मित्रा यांच्या नेतृत्वाखाली लष्कर आणि पोलिसांच्या पथकाने बॅन्डच्या तालावर राजपथावरुन शानदार संचलन केले. राष्ट्रपती आणि तिन्ही सैन्यदलांचा सेनापती या नात्याने प्रणव मुखर्जी यांनी विशेष मंचावरुन सलामी स्वीकारली. देशाच्या सांस्कृतिक आणि विविधांगी वैविध्याची झलक दाखवणारे 25  रंगीबेरंगी चित्ररथ आकर्षणाचे केंद्र ठरले होते.शासनाच्या मेक इन इंडिया धोरणाचे प्रतीक चिन्ह असणारा अजस्त्र यांत्रिक सिंह आणि हायस्पीड बुलेट ट्रेन उपस्थितांची दाद घेऊन गेली.वित्त विभागाचा प्रधानमंत्री जनधन याजनेचा चित्ररथ तसेच महिला आणि बालकल्याण विभागाच्या बेटी बचावबेटी पढाव मोहिमेवर आधारित सादरीकरणाने उपस्थितांची मने जिंकली.
 
यावर्षीच्या प्रजासत्ताक दिनाची संकल्पना  महिला सबलीकरण होती. त्या अनुषंगाने सैन्याच्या तीनही  दलांच्या केवळ महिला अधिकाऱ्यांचे राजपथावर प्रथमच झालेले संचलनही लक्षवेधी ठरले. राज्यांच्या चित्ररथात सरदार वल्लभभाई पटेल यांचा एकतेचा पुतळा बनवण्याच्या  गुजरातच्या महत्त्वाकांक्षी  प्रकल्पाचे प्रतिकात्मक सादरीकरण  तसेच सरदार सरोवर योजनेचा समावेश होता. तर महाराष्ट्राने आपल्या चित्ररथात वारकरी आणि पंढरपूर यात्रेचा देखावा सादर केला. नवनिर्मित तेलंगण राज्याने बोनालू  उत्सवाचे दर्शन घडवले. 16 राज्यांनी चित्ररथ सादर केले.
हवाई दलाच्या जेट विमानांची चित्तथरारक  प्रात्यक्षिके  आणि सीमा सुरक्षा दलाच्या जांबाझ जवानांच्या मोटारसायकलवरच्या कसरतींना अमेरिकेच्या फर्स्ट लेडी मिशेल ओबामा यांचीदेखील  दाद मिळाली. 
 

Thursday 1 January 2015

गाँव की गलियों से भारत के सेना प्रमुख तक पहुँचने का सफर

गाँव की गलियों से भारत के सेना प्रमुख तक पहुँचने का सफर
पीवीएसएम यूवाईएसएम एवीएसएम वीएसएम और एडीसी, जनरल दलबीर सिंह ने 31 जुलाई, 2014 को नई दिल्‍ली में 26वें सेना प्रमुख का पदभार ग्रहण किया।
उनका इस महत्‍वपूर्ण पद तक पहुंचना गांव के एक युवक की आकांक्षाओं की प्रेरणादायक कहानी है जो एक दिन सेना में अधिकारी बनना चाहता था। कड़े परिश्रम, दृढ़ निश्‍चय और समर्पण के भाव से वे न केवल सेना में एक अधिकारी बनने में सफल हुए बल्‍कि आज वे सेना में सर्वोच्‍च जनरल के पद पर है।
उनका जीवन सपनों की कहानी है। ऐसा सपना जो सैंकड़ों युवा देखते हैं लेकिन कुछ ही इन सपनों को हासिल कर पाते हैं। भारत के नए सेना प्रमुख की उपलब्‍धियां उन युवाओं के लिए निश्‍चित ही प्रेरणादायक होगी जो खुद पर और अपने सपनों में विश्‍वास रखते हैं और उन्‍हें साकार करने के लिए कार्य करते हैं ।
जनरल एसएचएफजे मानेकशॉ (बाद में फील्‍ड मार्शल के रैंक से सम्‍मानित किए गए) और जनरल जीजी बेवूर के बाद वे तीसरे सेना प्रमुख है जो गोरखा ब्रिगेड में शामिल थे या इस ब्रिगेड से संबंधित थे।
जनरल दलबीर सिंह को जून 1974 को 4/5 जीआर (एफएफ) में कमीशन दिया गया था। जो सेना के नामकरण से ज्‍यादा परिचित नहीं है, उनको आसानी से समझने के लिए 4/5 जीआर (एफएफ) का मतलब 5वीं गोरखा राइफल्‍स (फ्रंटियर फोर्स) की चौथी बटालियन से है।
जनरल दलबीर सिंह का गोरखा रेजीमेन्‍ट को चुनने के बारे में कहना है कि वह मेरा एक सोचा-समझा फैसला था क्‍योंकि मैं केवल पैदल सेना (इनफैन्‍ट्री) में ही शामिल होना चाहता था। इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया में सबसे बढ़िया जवान गोरखा रेजीमेन्‍ट के हैं, वे अपनी बहादुरी के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
6 फीट के बलिष्‍ठ नए सेना प्रमुख का न केवल सेना में बल्‍कि गोरखा बलों के लिए राष्‍ट्रभक्‍त के तौर पर भी काफी ऊंचा स्‍थान है क्‍योंकि वे उनके सबसे वरिष्‍ठ सेवारत जनरल है उनकी देशभक्‍ति को देखते हुए उनकी दो रस्‍मी नियुक्‍तियां की गई हैं। 19 अप्रैल, 2011 से उन्‍हें 5 जीआर (एफएफ) रेजीमेन्‍ट का कर्नल और 1 जनवरी, 2014 से गोरखा ब्रिगेड का अध्‍यक्ष नियुक्त किया गया है।
हालांकि भारतीय सेना की पुरानी परंपराओं के अनुसार, सेना प्रमुख को कई अन्‍य सैन्‍य और रेजीमेन्‍ट के ‘सम्‍मानित कर्नल’ बनाया जाता है।
जन्‍मजात योद्धा
जनरल दलबीर सिंह का जन्‍म 28 दिसम्‍बर, 1954 को हरियाणा में झज्‍जर जिले के बिशन गांव में हुआ था। हालांकि क्षेत्र के अन्‍य गांव की तरह ही खेती प्रधान गांव होने के बावजूद इस जाट बहुल गांव में से अधिक संख्‍या में युवक सेना में शामिल होते हैं क्‍योंकि वीरता के गुण वे अपने पूर्वजों से पाते हैं।
उनके पिता और चाचा अपने-अपने पिता और चाचाओं की तरह ही सेना में अधिकतर अश्‍वारोही(केवलरी) और पैदल(इनफैन्‍ट्री) सेना में शामिल हुए हैं। युवा दलबीर के लिए भी सेना में शामिल होना एक नैसर्गिक पसंद थी।
किसे पता था कि नजदीक के कस्‍बे- कुरुक्षेत्र का यह वीर एक दिन भारतीय सेना का जनरल बनेगा। यह एक संयोग ही है कि कुरुक्षेत्र महाभारत के युद्ध और अपने वीर योद्धाओं के लिए प्रसिद्ध है।
शुरूआती जीवन, सादगीपूर्ण शुरूआत
इस बात पर कौन विश्‍वास करेगा कि 21वीं सदी में भारतीय सेना का प्रमुख और जनरल बनने वाले युवक के शुरूआती दिन काफी सादगीपूर्ण थे। दलबीर की शुरूआती शिक्षा गांव के ईंटों वाले दो कमरों के प्राथमिक विद्यालय में हुई। वे बताते हैं कि वो कमरे भी बड़ी कक्षाओं के बच्‍चों के लिए थे। उनके सहित दूसरे बच्‍चों को पेड़ के नीचे जमीन पर बैठाया जाता था। अधिकतर गांवों में युवाओं का जीवन आज भी शायद वैसा ही है। प्रत्‍येक गांव में खाली समय में युवाओं को खेती के कामों में हाथ बंटाना पड़ता है।
युवा दलबीर भी अपने परिवार की अपने तरीके से मदद करते थे। इससे उनमें मातृभूमि के प्रति गहरा सम्‍मान पैदा हुआ। खेतों में काम करने वाले युवाओं को जब भविष्‍य में बड़ी भूमिका निभाने का अवसर मिलता है तो वे बाहरी हमले और धमकियों से अपनी भूमि और फ्रंटियर की गर्व से रक्षा करते हैं। विद्यालय में ही एक कैडेट के जीवन का संकेत मिला
1961 में भारत सरकार ने कई राज्‍यों में लड़कों के लिए रिहायशी पब्‍लिक स्‍कूल-सैनिक विद्यालय स्‍थापित करने का फैसला किया, ताकि ये विद्यालय राष्‍ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) जैसे प्रशिक्षण संस्‍थानों के विभिन्‍न अधिकारियों के लिए सहायक विद्यालय के तौर पर कार्य करें।
राजस्‍थान का सैनिक विद्यालय, चित्‍तौड़गढ़ (एसएससी) भी इनमें से एक था। जनरल दलबीर के ताऊ जी विद्यालय में घुड़सवारी सिखाते थे और उन्‍होंने दलबीर को सैनिक विद्यालय में पढ़ाने का सुझाव दिया। इस तरह 15 जनवरी, 1965 को कैडेट दलबीर सिंह के सैन्‍य जीवन की शुरूआत हुई।
सुहाग उनका उपनाम है और इस संबोधन की आवश्‍यकता नहीं है इसलिए जनरल को उनके अधिसूचित नाम दलबीर सिंह से ही संबोधित किया जा सकता है।
गांव बिशन से चित्‍तौड़गढ़ विद्यालय तक की उनकी उड़ान से सेना में भविष्‍य के एक अधिकारी का भाग्‍य तय हुआ। उस समय के बेहतर शिक्षकों की देखरेख में दलबीर सिंह के मन में प्रतिबद्धता, साहस और फौलादी इरादों को भरने का कार्य किया गया।
उनके शिक्षकों के लिए आज गर्व का समय है। उनमें से एक श्री के. एस. कैंग जो अब 90 वर्ष के है दलबीर सिंह के सेना प्रमुख बनने की खबर सुनकर भाव-विभोर हो गए और कहते है कि ऐसा लगता है कि वे एक बार फिर से 18 वर्ष के हो गए हैं। श्री कैंग ने एसएससी के स्‍थापना के शुरूआती दिनों में वहां कार्य किया था। इससे पहले 10 वर्ष तक वे भारतीय सैन्‍य अकादमी (आई एम ए) में शिक्षक थे। दलबीर सिंह के लिए उनका अनुभव बेशकीमती साबित हुआ।
राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से सम्‍मानित श्री एच. एस. राठी कैडेट दलबीर को ‘एक बहुत ही अनुशासित, कड़ा परिश्रमी और आज्ञाकारी छात्र’ बताते हैं। 1996 में सेवानिवृत्‍त श्री राठी उनकी खेल-कूद में दक्षता के बारे में विशेष रूप से बताते हैं। उनका कहना है कि ‘दलबीर सिंह खेल-कूद में भी बहुत अच्‍छे थे और बहुत ही बढ़िया बास्‍केटबॉल खेलते थे’।
उनके शैक्षणिक कार्यों के बारे में जनरल दलबीर के अंग्रेजी के शिक्षक श्री जे. एन. भार्गव कहते हैं कि ‘वे अपनी पढ़ाई बहुत अच्‍छे तरीके से करते थे’। हर क्षेत्र में उनका बेहतर प्रदर्शन था। ‘वे नम्र, दृढ़ संकल्‍पी और तेजी से कार्य करने वाले व्‍यक्‍ति थे जो किसी भी कार्य को तुरंत करते थे और उनके यही गुण स्‍कूल में दूसरों से उनके व्‍यक्‍तित्‍व को अलग करते है’।कुंभा हाऊस का नेतृत्व
जिस समय वह नौंवी कक्षा में आए वह लगभग उतने ही लंबे थे जितने वह आज हैं। उन्होंने स्कूल में घुड़सवारी जल्दी ही करनी शुरु कर दी थी इसका फायदा बाद में उऩ्हें अपने जीवन में मिला। उनकी नेतृत्व क्षमता के काफी गुण कुंभा हाऊस के हाऊस कैप्टन के तौर पर सामने आने शुरु हो गए थे। उनका हाऊस इस क्षेत्र के वीर राजपूत योद्धाओं-राजकुमारों के नामों पर बनाये गये नौ हाऊसों में से एक था।
1971-72 की स्कूल जर्नल रिपोर्ट में कुंभा हाऊस के तत्कालीन कैप्टन, सुरेश कुमार इनानी जिन्होंने जर्नल दलबीर के राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में आने के बाद कैप्टन का पद संभाला, वे लिखते हैं : “इस सैनिक स्कूल के इतिहास में सभी विजेता हाऊसों में से सबसे अधिक प्वांइट जीतने पर कुंभा हाऊस वालों को अपनी उपलब्धि पर गर्व है “इससे दलबीर की अद्भुत नेतृत्व क्षमता का पता चलता है जिसके कारण उस वर्ष कुंभा हाऊस सभी प्रतिस्पद्धाओं में ट्रॉफियां जीत पाया।
एनडीए, आईएमए-वृहत परिवेश
स्कूल के कैडेट मैस के ‘सम्मानपट्ट’ की सूची में कैडेट दलबीर सिंह (रोल न0 382) का नाम सभी कैडेटों में 82वें स्थान पर तथा 20 जुलाई, 1970 को एनडीए के 44वें कोर्स में शामिल होने वाले 12 कैडेटों में से एक था।
एनडीए का परिवेश उनके स्कूल का विस्तार भर था, लेकिन इसका स्तर थोड़ा बड़ा तथा प्रतिस्पर्धात्मक था। अपने स्कूल में होने वाली आउटडोर तथा खेल संबंधी दूसरी गतिविधियों में भाग लेते रहने के कारण वे एनडीए के जल्दी ही बहुत अच्छे एथलीट तथा उत्कृष्ट खिलाड़ी बन गये। घुड़सवारी में कुशलता के कारण वे एनडीए के पोलो तथा घुड़सवारी क्लब के अध्यक्ष भी बने।
अंतत: जून 1974 में लेफ्टिनेंट दलबीर सिंह का सेना में अफसर बनने का सपना पूरा हुआ। यह एक ऐसी उपलब्धि थी जिस पर उनके पिताजी, दादाजी, चाचाओं, ताऊओं तथा अन्य सभी परिजनों को गर्व था। जैसा कि पहले बताया गया है कि उन्हें उनकी पसंद के अनुसार इनफेन्ट्री रेजिमेंट दी गई थी और उन्हें 4/5 गोरखा राइफल्स (फ्रंटियर फोर्स) में कमीशन दिया गया जो 1 जनवरी, 1963 को बनाये जाने के कारण पांच गोरखा राइफल्स (फ्रंटियर फोर्स) की सबसे कम उम्र बटालियन थी।
सेना में उनका जीवन
1971 के भारत- पाक युद्ध के दौरान पूर्वी क्षेत्रों में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने वाली सेना में उनका आना सम्मान और चुनौती दोनों की ही बात थी। यह यूनिट अपनी वीरता के लिए दो महावीर चक्र सम्मान तथा वीरता के कई अन्य सम्मान प्राप्त कर चुकी थी। इस बटालियन तथा इसके बहादुर सैनिकों की ख्याति के अनुरुप चल पाना काफी चुनौती भरा था।
हालांकि इस महत्वाकांक्षी अफसर के लिए कोई चुनौती अजेय नहीं थी। जल्दी ही वह अपनी योग्यता, ईमानदारी तथा कार्य क्षमता के कारण सबके चहेते बन गये। उनका व्यवहार एक मिसाल बन गया। उनका अपनी बटालियन के प्रति विशेष लगाव था जिसको दिखाने का अवसर उन्हें जल्द ही मिल गया और उन्होंने अपना कर्तव्य अचूक तरह से निभाया।
जब उनकी बटालियन को ‘ऑपरेशन पवन’ के लिए श्रीलंका भेजा गया तब वह आईएमए में मेजर के रुप में अनुदेशक थे। यूनिट के वहां पहुंचने के केवल दो दिनों के बाद, जाफना के एक बड़े ऑपरेशन में कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल इंद्र बल सिंह बावा सहित कई अन्य अधिकारी तथा सैनिक मारे गये। उन्हें आज भी वह समय याद है जब उन्हीं को कर्नल बावा के माता-पिता, जो देहरादून के निकट रहते थे, को उनके वीरगति को प्राप्त होने का दुख:द समाचार देने का काम सौंपा गया था।
अपनी यूनिट पर संकट आया देखकर उन्होंने सेना मुख्यालय से खुद को बटालियन वापस भेजने का निवेदन किया जिसे मान लिया गया। अगले 24 घंटे के अन्दर ही, अपनी यूनिट में वापस आकर उन्होंने कंपनी कमांडर का काम संभाल लिया। इसके बाद वे अपनी यूनिट के साथ तब तक डटे रहे जब तक अंतत: दो वर्षों के बाद यूनिट को वहां से हटाया नहीं गया। उनके आने से पहले कई झटके खा चुकी सेना का मनोबल काफी ऊंचा उठा।
जैसे-जैसे समय बीतता गया उनका पद भी बड़ा होता चला गया और उनमें विशिष्ट समावेश भी हुआ। करियर संबंधी विभिन्न सेवा कोर्स करने के अलावा उन्होंने अपनी शैक्षिक योग्यताओं में कुछ मास्टर डिग्रियां भी जोड़ी जिनमें उस्मानिया यूनिवर्सिटी से ‘’प्रबंध अध्ययन’’ और चेन्नई यूनिवर्सिटी से प्राप्त ‘’स्ट्रेटेजिक स्टडीज’’ डिग्रियां शामिल हैं। भारत में उन्होंने जिन प्रख्यात सेवा कोर्स में भाग लिया उनमें कॉलेज ऑफ डिफेंस मैनेजमेंट, सिकंदराबाद (1997-98) से ‘’लॉन्ग डिफेंस मैनेंजमेंट कोर्स’’ और नई दिल्ली से (2006) ‘’नेशनल डिफेंस कॉलेज कोर्स’’ शामिल हैं। इसके अलावा वे एम फिल (स्ट्रैटेजिक स्टडीज़) भी हैं।
विदेशों में उन्होंने जिन कोर्सों में भाग लिया उनमें एपीसीएसएस (एशिया-पेसेफिक सेंटर फॉर सिक्योरिटी स्टडीज़), हवाई (यूएसए) से 2005 में ‘’एक्जीक्यूटिव कोर्स’’ और यूएन पीस कीपिंग सेन्टर, नेरोबी (केन्या) में आयोजित ‘’सीनियर मिशन लीडर्स कोर्स‘’ में भाग लिया। इसके अलावा उन्होंने मई 2007 में अकरा (घाना) में आयोजित संयुक्त राष्ट्र अभ्यास और जकार्ता में 2008 में आयोजित पेम सेमिनार में भी वे शामिल हुए।
चार दशकों के अपने विशिष्ट करियर में वे सेना की कमांड की श्रृंखला में जैसे-जैसे आगे बढ़ते रहे उन्हें अनेक महत्वपूर्ण ‘’कमांड और स्टॉफ‘’ नियुक्तियां भी मिली। उन्होंने पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में सक्रिय काउंटर इनसर्जेन्सी (सीआई) और छद्म युद्ध वातावरण में भी जिम्मेदारी निभाई। उन्होंने नागालैंड में राष्ट्रीय राइफल्स बटालियन स्थापित की और उसका नेतृत्व भी किया। इसके बाद कश्मीर घाटी में सघन सीआई परिचालनों के लिए पूरी तरह समर्पित इन्फेंट्री ब्रिगेड भी उन्होंने बनाई इस कार्य हेतु उच्च स्तर की विशिष्ट सेवाओं के लिए उन्हें विशिष्ट सेवा मेडल प्रदान किया गया।
उन्होंने कारगिल-द्रास सेक्टर में उच्च अक्षांश क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर तैनात करने के लिए माउंटेन डिवीजन का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया। इस विशिष्ट कार्य के लिए इन्हें अति विशिष्ट सेवा मेडल (एवीएसएम) दिया गया।
उन्होंने मंत्रिमंडल सचिवालय के अधीन महानिदेशक, स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के पद पर भी काम किया। पदोन्नति होने पर उन्हें पूर्वोत्तर राज्यों में सीआई परिचालनों और भारत-चीन सीमा के साथ-साथ परंपरागत परिचालन की दोहरी जिम्मेदारी निभाने के लिए एक कोर्प्स का जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) नियुक्त किया गया और उन्हें उत्तम युद्ध सेवा मेडल (यूवाईएसएम) से सम्मानित किया गया।
बाद में उन्हें 16 जून 2012 से 31 दिसंबर 2013 तक पूर्वी सेना कमांडर नियुक्त किया गया और 1 जनवरी 2014 को उन्हें उप सेना प्रमुख (वीसीओएएस) बनाया गया। राष्ट्र के प्रति उच्च स्तर की विशिष्ट सेवाओं के लिए उन्हें सर्वोच्च सैनिक पदक परम विशिष्ट सेवा मेडल से भी सम्मानित किया जाएगा। मुख्यालय में एक निदेशक के रूप में और बाद में जनरल सर्विस एंड स्टॉफ ड्यूटीज (जीएसएंडएसडी) निदेशालय में उप महानिदेशक के रूप में कार्य करने के कारण वे सेना मुख्यालय में उच्चतम उपाधि स्तर के वातावरण में काम करने से भलीभांति परिचित हो गए थे।
उप-सेना प्रमुख के रूप में उनका कार्यकाल 7 महीने का रहा और वे उस हर चीज़ के प्रति जागरूक हैं जिन्हें वह जानने की जरूरत समझते हैं और जो हर दृष्टि से सेना के लिए शुभ संकेत देता हो।
एक पारिवारिक सदस्य के रूप में जब वे मिले
एक सुंदर, सजीले और युवा कैप्टन को आर्मी स्कूल ऑफ मैकेनिकल ट्रांसपोर्ट, बैंगलौर में बतौर अनुदेशक नियुक्त किया गया। तब तक वह अविवाहित थे और 1982 के एशियाई खेलों के दौरान दिल्ली छुट्टी पर आए थे। उनके एक दोस्त ने सुझाव दिया कि उनके लिए एक सेवानिवृत्त नौसेनिक अधिकारी की बेटी का रिश्ता है, जिस पर उन्हें विचार करना चाहिए। उन्होंने हामी भर दी और अपनी होने वाली पत्नी से मिले, इसके बाद उन्होंने अपने माता-पिता को रीति रिवाज और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने को कह दिया। बाद में उनका विवाह परम्परागत रुप से 7 फरवरी, 1984 को दिल्ली में हुआ।
कई दशक बीत जाने के बाद, वधू के घर पर घटित हुई एक रोचक घटना आज भी चेहरों पर मुस्कान ला देती है। दरअसल घर में लड़कियों ने गलती से शादी की बातचीत करने आए कैप्टन दलबीर के बड़ी उम्र के मित्र को ही ‘वर’ समझ लिया था।
आने वाले के सिर में सफेद बाल थे और उसकी उम्र काफी बड़ी दिख रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान की स्नातक विदुषी नमिता, जिसके लिए यह शादी का प्रस्ताव आया था, उन्हें देखकर निराशा से लगभग रो पड़ी, लेकिन जल्दी ही उन्हें और उनके भाई-बहनों को अपनी गलती पता लग गई और उन्होंने चैन की सांस ली। जब एक दिन लंबे और सजीले अफसर कैप्टन दलबीर उनके यहां पहुंचें तो उनके अच्छे व्यवहार और सज्जनतापूर्ण तरीके से नमिता भावुक होकर शर्मा गईं और उनके भाई-बहन बहुत प्रभावित हुए।
अब इस दंपति के परिवार में दो बेटियां -पल्लवी और प्रिया तथा बेटा साहिल हैं। सबसे बड़ी बेटी पल्लवी की शादी निशांत से हुई है। इस तरह उनका भरा-पूरा परिवार है।
सैन्य बलों में पारिवारिक जीवन की अपनी समस्याएं होती हैं। सेना में शायद अधिकतर समस्याएं जल्दी-जल्दी स्थानांतरणों के कारण होती हैं। जैसे-जैसे जनरल दलबीर का पद बढ़ा, उनकी जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ती गई। उनकी प्रोफाइल से उन मुश्किल क्षेत्रों का संकेत भी मिलता है, जहां वह रहे और जहां परिवार को ले जाने की अनुमति नहीं थी। इस समय, जब उनके पति उनके साथ नहीं थे, श्रीमती नमिता सुहाग ने अपने परिवार और बच्चों का बहुत अच्छी तरह ध्यान रखा।
फिर भी केवल उनका अपना परिवार नहीं था, जिसका उन्हें ध्यान रखना था। अलग हुए सैनिकों के परिवारों का भी वे ध्यान रखती थीं। श्रीमती सुहाग कहती हैं- “वे हमारे परिवार के सदस्यों की तरह हैं। मैं जब भी हो सके उनके पास जाती हूं, जिस भी तरीके से संभव हो उनकी समस्याएं सुलझाने की कोशिश करती हूं। ”ऐसा करके उन्होंने सेना की बेहतरीन कल्याणकारी रीति को बनाए रखा है, जिसमें अफसर और उनके परिजन बिना चूक के सेना की संस्कृति, भाषा और रीतियों को अपना लेते हैं।
श्रीमती सुहाग के अपने परिवार की सैनिक पृष्ठभूमि के कारण उनके लिए यह भूमिका निभाना थोड़ा सा आसान रहा होगा। आज जब वह भारतीय सेना की ‘प्रथम महिला’ होने के नाते आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन की अध्यक्ष बनी हैं, तो सेना रूपी बड़ा परिवार और अच्छे तरीके से उनके स्नेह, समझ तथा भलाई की प्रवृति का भागीदार रहेगा। इसमें ‘वीर नारियों’ का कल्याण भी शामिल है, जिनकी भूमिका सेना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
एक तरीके से सेना के ‘प्रथम परिवार’ का सैन्य बलों के साथ लगाव देख पाना मुश्किल नहीं है। सब जानते हैं कि जनरल दलबीर के परिवार का पहले से ही सेना से संबंध रहा है, जिसमें उनके छोटे भाई सेना में गोरखा रेजिमेंट में कर्नल के रुप में सेवारत हैं। इसके अतिरिक्त उनकी दो बहनों की शादियां भी सेना के अधिकारियों से हुई है।
श्रीमती सुहाग के परिवार में भी उनके पिताजी नौसेना में रहे, उनके तीनों भाईयों ने भी सैन्य बलों में सेवाएं दी। उनके सबसे बड़े भाई अब सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। बाकी दो भाइयों ने नौसेना को चुना था, जिसमें से अब एक सेवानिवृत्त हो चुके हैं और दूसरे अभी वहीं कार्यरत हैं।
उनकी बहन की शादी भी एक सेना अधिकारी से हुई है, जो परमवीर चक्र विजेता सेवानिवृत्त कर्नल होशियार सिंह के बेटे हैं।
यह वास्तव में एक जबरदस्त रिकॉर्ड है और इसी लिए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि ऐसे परिवार से आए दलबीर सुहाग सेना प्रमुख बने हैं। उनके परिवार ने अपने बहुत सारे सदस्य देश की सेवा के लिए समर्पित हैं और उनका योगदान अमूल्य है।
गर्मजोशी और मजबूत संबंधों से भरा-पूरा परिवार जमीनी बंधनों से बंधे होने के बावजूद इनके घर में हमेशा गर्मजोशी का माहौल होता है। घर की आंतरिक साज-सज्जा भी बेहद सुरुचिपूर्ण है और इन सब ने श्रीमती सुहाग की रचनात्मक और कलात्मक अभिरुचि साफ दिखाई देती है। सबसे बढ़कर, परिवार के सब लोग इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके घर आने वाला हरेक आदमी केवल मधुर स्मृतियाँ लेकर जाए।
जनरल और उनकी पत्नी, दोनों को संगीत में रुचि है। हालांकि, उनकी रुचि पुराने संगीत में है और इसमें उनकी युवावस्था के दिनों के गाने और गज़ल शामिल हैं। अगर समय इजाजत दे तो वे एक साथ फिल्म भी देख लेते हैं। हालांकि जो फिल्म उन्होंने पिछली बार देखी थी, उसका नाम उन्हें याद नहीं था, परंतु यह पक्के तौर पर पता था कि उसमें सोनम कपूर ने अभिनय किया है।
श्रीमती सुहाग कहती हैं कि “अगर संभव हुआ तो वे भारतनाट्यम और दूसरे शास्त्रीय नृत्य सीखना पसंद करेंगी”। इस इच्छा में उनकी रुचि और अभिरुचियां स्पष्ट दिखाई देती हैं, जिनके लिए उन्हें पहले समय नहीं मिल सका था। सीखने की इस इच्छा के बावजूद वह जानती हैं कि अपनी वर्तमान भूमिका में कल्याण संबंधी कामों के चलते वह पहले से भी अधिक व्यस्त हो जाएंगी।
हाल के सालों में परिवार के लिए परीक्षा की घड़ी रही, लेकिन इस कठिन परीक्षा में पारिवारिक संबंधों को मजबूत बनाया है। उन सबको यह पक्का विश्वास था कि परिजनों और मित्रों की शुभकामनाओं से वे जीत जाएंगे और उन्होंने यह बहुत अच्छे तरीके से किया भी। उनके पुराने पारिवारिक मित्रों तथा शुभचिंतकों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं और वे नये सेना प्रमुख तथा उनके परिवार को मजबूत संबंधों के लिए बधाई देते हैं।
एक ऐसा आज्ञाकारी सदस्य, जिसे नाफरमानी की इजाजत मिल जाती है वफादार सैनिकों और रक्षकों से घिरे हुए जनरल के बारे में यह सोचना भी मुश्किल है कि कोई उनकी अवज्ञा भी कर सकता है। सुहाग के घर में ऐसा भी कोई है, जिसे अपने तरीके से रहने की आज्ञा है। उसे जनरल के अनुसार नहीं चलना, बल्कि वह अपने अंदाज से रह सकता है, खेल-कूद सकता है। उसका नाम‘जूनो’ है और वह एक चार वर्षीय सुनहरे रंग का कुत्ता है, जिसे उनकी बेटी पल्लवी ने उन्हें उपहार के तौर पर दिया है।
साफ है कि जूनो पूरे घर में तब तक खेल-कूद करता रहता है, जब तक वह अपने ‘मास्टर’ को घर आते नहीं देखता। उनके आ जाने पर वह उत्साहित हो उठता है। बाकी समय वह आराम से उनका ध्यान और प्यार पाने की आशा में उनके पास बैठा रहता है। हमेशा जनरल की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार‘जूनो’ को प्यार से थपथपाते हुए जनरल कहते हैं कि “जूनो पूरी तरह तनावरहित होने में मेरी मदद करता है।”
जनरल यह याद करते हैं कि एक बार एक कुत्तों के विशेषज्ञ-प्रशिक्षक ने उन्हें प्रस्ताव दिया था कि वे जूनो को बिना पलक झपकाए सारे आदेश मानने का प्रशिक्षण दे सकते हैं। तब मधुरभाषी जनरल ने विनम्रता से उनका प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा कि “आसपास हर कोई मेरा आदेश मानता है, लेकिन इसका आदेश न मानना मुझे ज्यादा अच्छा लगता है।”
(लेखक रक्षा विभाग कोलकोता में मुख्य जनसंपर्क अधिकारी हैं)

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